भारतीय संविधान की धारा 370 जम्मू कश्मीर राज्य को भारत में अन्य राज्यों के मुकाबले विशेष अधिकार प्रदान करती थी, 1951 में राज्य को संविधान सभा को अलग से बुलाने की अनुमति दी गई, नवंबर 1956 में राज्य के संविधान का कार्य पूरा हुआ।
जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन कुछ कानून ऐसे बनाये गए थे, जो एक देश को दो हिस्सों में बांटते थे। इनमें भारतीय संविधान की धारा 370 और 35ए प्रमुख थे। धारा 370 भारत की बजाय पाकिस्तान के नागरिकों को जम्मू कश्मीर में तरजीह देती थी इसलिए यह देश के लिए खतरनाक थी। इस धारा के कारण ही पाकिस्तानी आतंकवादियों को भी जम्मू-कश्मीर में प्रश्रय मिल जाता था,जबकि 35ए की आड़ में राज्य के पिछड़े और दलित हिन्दुओं के साथ भेदभाव किया गया था। उन्हें राज्य की नागरिकता से वंचित रखा गया था। यद्यपि वे भारत के नागरिक हैं। धारा 370 में कश्मीरी महिला को यह अधिकार था कि वह किसी पाकिस्तानी से शादी कर लेती है तो उस पाकिस्तानी नागरिक को भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जाएगी। इसके साथ ही उसे भारतीय नागरिकता भी मिल जाएगी। इसकी आड़ में ही जम्मू-कश्मीर कई पाकिस्तानी आतंकवादियों की शरणस्थली बन गया था। इस धारा की सबसे बड़ी विसंगति यह थी कि यदि जम्मू कश्मीर की कोई महिला भारत के किसी राज्य के व्यक्ति से शादी कर ले तो उस महिला की जम्मू-कश्मीर की नागरिकता खत्म हो जाती थी और वह अपनी सम्पत्ति से वंचित हो जाती थी।
इन धाराओं से जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा और विकास पर करदाताओं की भारी भरकम धनराशि हर साल खर्च हो रही थी। लेकिन देश के अन्य राज्यों का कोई भी व्यक्ति जम्मू कश्मीर में घर या मकान खरीद नहीं सकता था संविधान की ये दोनों धाराएं देश की एकता और अखंडता के खिलाफ थीं। इनकी आड़ में पिछड़ों और दलितों का हक हड़पा जा रहा था। लेकिन अचरज की बात यह है कि पिछड़े और दलितों के नाम पर राजनीति की ठेकेदारी करने वाले अखिल भारतीय दलों के मुखिया इस मामले पर मौन थे। भारतीय संविधान की धारा 370 जम्मू कश्मीर राज्य को भारत में अन्य राज्यों के मुकाबले विशेष अधिकार प्रदान करती थी। 1951 में राज्य को संविधान सभा को अलग से बुलाने की अनुमति दी गई। नवंबर 1956 में राज्य के संविधान का कार्य पूरा हुआ। 26 जनवरी 1957 को राज्य में विशेष संविधान लागू कर दिया गया। धारा 370 के प्रावधानों के मुताबिक संसद को जम्मू कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार था।
किसी अन्य विषय से सम्बन्धित कानून को लागू करवाने के लिए केन्द्र को राज्य सरकार की सहमति लेनी पड़ती थी। इसी विशेष दर्जे के कारण जम्मू-कश्मीर पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती थी। राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं था। 1976 का शहरी भूमि कानून भी जम्मू कश्मीर पर लागू नहीं होता था। जम्मू-कश्मीर की जनता को उस समय धारा 370 के तहत कुछ विशेष अधिकार दिए गए थे।
इसी की वजह से यह राज्य भारत के अन्य राज्यों से अलग था। जम्मू कश्मीर का झंडा अलग होता था। जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती थी। जम्मू-कश्मीर में भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं था यहां भारत की सर्वाेच्च अदालत के आदेश मान्य नहीं होते थे। भारत की संसद जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में बहुत ही सीमित दायरे में कानून बना सकती थी।
जम्मू कश्मीर में पंचायत के पास कोई अधिकार नहीं था। यहां सीएजी भी लागू नहीं था। अनुच्छेद 35ए संविधान का वह आर्टिकल था जो जम्मू कश्मीर को विशेष अधिकार देता था। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ- राजेन्द्र प्रसाद ने 14 मई 1954 को एक आदेश के जरिए इस धारा35ए को लागू किया था। ये धारा जम्मू-कश्मीर की सरकार और वहां की विधानसभा को जम्मू-कश्मीर का स्थायी नागरिक तय करने का अधिकार देती थी।
इसी धारा के आधार पर 1956 में जम्मू-कश्मीर ने राज्य में स्थायी नागरिकता की परिभाषा तय कर दी थी, जो अभी तक सबसे बड़े विवाद की जड़ थी। धारा 35ए के मुताबिक जम्मू-कश्मीर का नागरिक उसे माना था, जो 14 मई 1954 से पहले राज्य का नागरिक रहा हो। वह 14 मई 1954 से पहले 10 साल तक जम्मू-कश्मीर में रहा हो और उसके पास जम्मू-कश्मीर में सम्पत्ति हो। इस नियम के तहत दूसरे राज्यों में भारतीय नागरिकों को जो मूल अधिकार मिले हैं, उनके उल्लंघन को लेकर याचिका भी दाखिल नहीं की जा सकती थी।
जम्मू कश्मीर की नागरिकता हासिल की हुई कोई लड़की अगर किसी गैर कश्मीरी से शादी करती थी तो उसे एक कश्मीरी को मिलने वाले सारे अधिकार खत्म हो जाते थे। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने 2002 में कहा था कि अगर कोई महिला किसी गैर-कश्मीरी से शादी करती है तो वह अपने कश्मीरी अधिकार रख सकती है लेकिन उसके बच्चे को कोई अधिकार नहीं मिलेगा। इस नये नियम की वजह से उन लोगों को खास तौर पर दिक्कत शुरू हुई थी जो देश विभाजन के बाद पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आये थे।
पाकिस्तान से आये जो लोग जम्मू-कश्मीर पहुंचे, उन्हें धारा 35ए नागरिकता नहीं देती थी, क्योंकि जब ये धारा लागू की गई, उस वत्तफ़ तक उन्हें आये हुए महज सात साल ही हो पाए थे। ऐसे में हजारों लोगों को नागरिकता नहीं मिल पाई, पर वही लोग जम्मू-कश्मीर के अलावा देश के किसी हिस्से में गए, तो उन्हें आम हिन्दुस्तानी की तरह सारे अधिकार मिल गए। ऐसे में जो लोग पाकिस्तान से हिन्दुस्तान बेहतरी की आस में आए थे वे और उनकी पीढ़ियां 63 साल के बाद भी शरणार्थियों की तरह रहने को मजबूर हो गई थीं।
हालांकि ये लोग भारत के नागरिक हैं, लोकसभा के लिए वोट दे सकते हैं और देश के किसी दूसरे राज्य में आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं पर ये लोग राज्य के चुनाव में शामिल नहीं हो सकते, लेकिन ये लोग राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक हो सकते हैं। एक आंकड़े के मुताबिक 1947 में 5764 परिवार पश्चिमी पाकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे। इन परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे, जिनकी चौथी पीढ़ी यहां रह रही है।
इसके अलावा गोरखा समुदाय के भी लोग हैं, जिन्हें राज्य के नागरिक होने का कोई अधिकार हासिल नहीं है। वहीं 1957 में जम्मू-कश्मीर सरकार की कैबिनेट ने एक फैसला लिया था। इसके तहत वाल्मीकि समुदाय के 200 परिवारों को विशेष सफाई कर्मचारी के तौर पर बुलाया गया था। पिछले 60 साल से ये लोग जम्मू में सफाई कर्मचारी के तौर पर काम कर रहे हैं, जिन्हें जम्मू कश्मीर में निवासी का दर्जा हासिल नहीं हैं, पर देश के बंटवारे के समय पाकिस्तान से लोगों की बड़ी संख्या भारत में दाखिल हुए, इनमें से जो लोग जम्मू कश्मीर में हैं, उन्हें वहां की नागरिकता भी प्राप्त हो चुकी है। अनुच्छेद 35ए के जरिए जम्मू कश्मीर की सरकार ने 80 फीसदी पिछड़े और दलित हिंदू समुदाय के भारतीय नागरिकों को राज्य के स्थाई निवासी होने के प्रमाण पत्र को देने से वंचित कर रखा था। साथ ही अनुच्छेद 35ए की आड़ लेकर उन लोगों के साथ भेदभाव किया जाता था जो विवाह कर महिलाएं यहां आती थीं।