क्राइम रिफॉर्मर एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. संदीप कटारिया ने बताया कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य के ऊपर विषेश ध्यानदेने की आवष्यकता है क्योंकि मनुश्य के शरीर, कारोबार और आस-पास के वातावरण पर मन का गहरा प्रभाव पड़ता है। आज प्रतिस्पर्धा और भाग-दौड़ की दुनिया में 90 प्रतिषत से अधिक बीमारी साइकोसोमैटिक है। इनकी उपज ज्यादातर मानसिक तनाव, अस्थिरता और अस्वस्थता के कारण ही है। फलस्वरूप अपराधवृत्ति, असामाजिक कार्य, अवसाद एवं आत्मघात आदि में अतिषय वृद्धि हुई है। इस विशम परिस्थिति से उबरने के लिए व्यक्ति और समाज में मानसिक स्वास्थ्य की परिभाशा, महत्व और उसे प्राप्त करने के सरल और सहज उपाय के बारे में जन जागृति लाना जरूरी है। सबसे पहले मन को जानने और उसे सुखी और संतुलित करने के बारे में सही समझ और जानकारी प्राप्त करनी है। मनुश्य का मन चार आयामों से बना है- संकल्प, भावना, नजरिया और स्मृति। मन के ये चार प्रवाह सकारात्मक, नकारात्मक, साधारण या व्यर्थ भी हो सकते हैं।
जब मन के संकल्प सकारात्मक होेते हैं तब भावनाएं और स्मृतियां सकारात्मक ही निकलती हैं। इससे मन शांत, स्थिर, संतुलित और स्वस्थ रहता है। वास्तव में, सकारात्मक मन ही स्वस्थ और शक्तिशाली मन है। इसके विपरीत नकारात्मक या व्यर्थ सोच अषांत, तीव्र, अस्थिर, असंतुलित और घातक होती है जो मन की भावनाओं, दृश्टिकोण और स्मृतियों को अनुमान, आषंका, भय, कमजोरी, अवसाद, नषा, बुरी आदत और आत्मघात की और धकेलती है। यह नकारात्मक स्थिति अस्वस्थ और दुर्बल मन की ही उपज है। जरूरत है व्यक्ति की मानसिकता, वृत्ति, व्यवहार, चरित्र और आदतों को सकारात्मक, स्वस्थ, स्वच्छ और आषावादी बनाने की। क्योंकि स्वस्थ चिंतन से स्वच्छ वृत्ति, स्वस्थ प्रवृत्ति, स्वच्छ वातावरण और स्वस्थ प्रकृति बनती है। मूल रूप से स्वस्थ मन ही स्वस्थ तन, स्वस्थ जीवन, स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण का आधार है। असल में, तन-मन को स्वस्थ बनाने के लिए कोई बाहरी साधन या संसाधन की आवष्यकता नहीं है।
जैसे एक वृक्ष की आत्मा उसका बीज है जिससे पेड़ का जन्म, विकास और विस्तार हुआ है। ऐसे ही हर प्राणी का मूल अस्तित्व उसकी आत्मा है। जैसे बीज वृक्ष की शक्ति का स्त्रोत है, वैसे ही हर इंसान के मानसिक, षारीरिक, बौद्धिक और नैतिक शक्ति, स्वास्थ्य और अभिवृद्धि का स्त्रोत उसकी अंतरात्मा है। आत्मा में निहित ज्ञान, गुण और विषेशता का चिंतन ही स्वास्थ्य की कुंजी है। जब मनुश्य की आत्मा बाह्म प्रकृति और कमेंद्रियों के अधीन होती है, तब नकारात्मक और व्यर्थ चिंता के वषीभूत होकर वे अस्वस्छ और अमर्यादित कर्म द्वारा अपना, दूसरों का, प्रकृति और पर्यावरण का अहित करते हैं।
मानव जीवन, समाज और पर्यावरण में संतुलन के लिए मनुश्य को अपने आत्मिक स्वरूप, आंतरिक गुण और शक्तियों का अनुभव और उपयोग करना है। साथ-साथ, इन दिव्य गुणों और शक्तियों के सागर, सर्व आत्माओं के पिता, परमपिता, परमात्मा के स्नेह संपूर्ण स्मृति में रहकर ही अपनी मनोवृत्ति, कर्म व्यवहार, प्रकृति और पर्यावरण को स्वच्छ, स्वस्थ, सुखदायी अैर समृद्ध बनाना है।